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    अधिकार क्षेत्र

    उच्चतम न्यायालय का अधिकार क्षेत्र

    उच्चतम न्यायालय के पास मूल, अपीलीय और सलाहकार अधिकार क्षेत्र है। इसका अनन्य मूल अधिकार क्षेत्र भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच या एक तरफ़ भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों के बीच और दूसरी तरफ़ एक या एक से अधिक राज्यों के बीच या दो या दो से अधिक राज्यों के बीच किसी भी विवाद तक विस्तारित है, यदि और जहाँ तक विवाद में कोई ऐसा प्रश्न शामिल है (चाहे विधि या तथ्य का) जिस पर विधिक अधिकार का अस्तित्व या सीमा निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त, संविधान का अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय को व्यापक मूल अधिकार क्षेत्र देता है। इसे बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकारपृच्छा और उत्प्रेषण की प्रकृति की रिटों सहित निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। उच्चतम न्यायालय को किसी भी सिविल या आपराधिक मामले को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में या अधीनस्थ न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने का निर्देश देने की शक्ति प्रदान की गई है। यदि वह इस बात से संतुष्ट है कि विधि के समान या काफ़ी हद तक समान प्रश्नों से जुड़े मामले उसके और एक या अधिक उच्च न्यायालयों या दो या अधिक उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित हैं और ऐसे प्रश्न सामान्य महत्व के सारवान प्रश्न हैं, तो उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित किसी मामले या मामलों को वापस ले सकता है और ऐसे सभी मामलों का स्वयं निपटान कर सकता है। माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत, उच्चतम न्यायालय में अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता भी शुरू की जा सकती है।

    उच्चतम न्यायालय की अपीलीय अधिकारिता का उपयोग संविधान के अनुच्छेद 132 (1), 133 (1) या 134 के तहत संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए प्रमाण पत्र द्वारा सिविल और आपराधिक दोनों मामलों में उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के संबंध में किया जा सकता है, जिसमें संविधान की व्याख्या के रूप में कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल है। सिविल मामलों में उच्चतम न्यायालय में अपील भी की जा सकती है यदि संबंधित उच्च न्यायालय प्रमाणित करता है: (क) कि मामले में सामान्य महत्व की विधि का सारभूत प्रश्न अंतर्वलित है, और (ख) उच्च न्यायालय की राय में उक्त प्रश्न का निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है। आपराधिक मामलों में, उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है यदि (क) उच्च न्यायालय ने अपील पर किसी आरोपी व्यक्ति के बरी होने के आदेश को उलट दिया है और उसे मौत की सजा सुनाई है या आजीवन कारावास या 10 साल से कम की अवधि के लिए कारावास की सजा सुनाई है, या (ख) अपने अधिकार के अधीनस्थ किसी भी न्यायालय से किसी भी मामले को अपने सामने विचारण के लिए वापस ले लिया है और इस तरह के मुकदमे में आरोपी को दोषी ठहराया है और उसे मृत्यु या आजीवन कारावास या 10 वर्ष से कम की अवधि के लिए कारावास के लिए सजा सुनाई है, या (ग) प्रमाणित किया गया है कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए उपयुक्त है। संसद उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालय की आपराधिक कार्यवाही में किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश पर विचार करने और अपील सुनने के लिए कोई और शक्तियां प्रदान करने के लिए अधिकृत है।

    उच्चतम न्यायालय के पास भारत में सभी न्यायालयों और अधिकरणों पर एक बहुत व्यापक अपीलीय क्षेत्राधिकार भी है, जहां तक वह अपने विवेक से, संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत भारत के क्षेत्र में किसी भी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी भी मामले या वाद में पारित या किए गए किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्धारण, सजा या आदेश से अपील करने की विशेष अनुमति दे सकता है।

    उच्चतम न्यायालय के पास उन मामलों में विशेष परामर्शी क्षेत्राधिकार है, जिन्हें विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भारत के राष्ट्रपति द्वारा भेजा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 317(1) और अन्य विधियों के तहत इस न्यायालय में संदर्भ या अपील के प्रावधान हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव अधिनियम, 1952 के भाग III के तहत चुनाव याचिकाएं भी सीधे उच्चतम न्यायालय में दायर की जाती हैं।

    संविधान के अनुच्छेद 129 और 142 के तहत, उच्चतम न्यायालय को न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति सहित स्वयं इस न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति प्रदत्त है। उच्चतम न्यायालय की अवमानना हेतु कार्यवाहियों को विनियमित करने हेतु नियम, 1975 के नियम 2, भाग-1 में निर्दिष्ट अवमानना के अलावा अन्य अवमानना के मामले में, न्यायालय (क) स्वतः संज्ञान लेते हुए, या (ख) महान्यायवादी, या सॉलिसिटर जनरल द्वारा की गई याचिका पर, या किसी व्यक्ति द्वारा की गई याचिका पर, और आपराधिक अवमानना के मामले में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की लिखित सहमति से कार्यवाही कर सकता है।

    उच्चतम न्यायालय के नियमों के आदेश XL के तहत, उच्चतम न्यायालय अपने निर्णय या आदेश की समीक्षा कर सकता है, लेकिन सिविल कार्यवाही में, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XLVII, नियम 1 में उल्लिखित आधारों को छोड़कर, और आपराधिक कार्यवाही में अभिलेख में स्पष्ट प्रदर्शित त्रुटि के आधार को छोड़कर किसी भी आवेदन पर समीक्षा के लिए विचार नहीं किया जाएगा। उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XLVII में यह प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय समीक्षा याचिका के खारिज होने के बाद सीमित आधार पर सुधारात्मक याचिका के माध्यम से अपने अंतिम निर्णय या आदेश पर पुनर्विचार कर सकता है।

    जनहित याचिका

    भारत में, एक रिट याचिका न केवल एक व्यथित व्यक्ति द्वारा बल्कि एक सार्वजनिक हित से प्रेरित व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा भी उन मामलों में दायर की जा सकती है जिनमें बड़े पैमाने पर जनता का हित शामिल है। न्यायालय को या तो एक रिट याचिका दायर करके या भारत के माननीय मुख्य न्यायमूर्ति को एक पत्र संबोधित करके प्रभावित किया जा सकता है, जिसमें इस क्षेत्राधिकार को लागू करने के लिए सार्वजनिक महत्व के प्रश्न पर प्रकाश डाला गया है। कई मौकों पर, उच्चतम न्यायालय ने पत्रों, टेलीग्रामों, पोस्टकार्ड और समाचार रिपोर्टों को रिट याचिकाओं के रूप में माना है। इस तरह की अवधारणा को लोकप्रिय रूप से ‘जनहित याचिका’ (पी.आई.एल.) के रूप में जाना जाता है। जनहित याचिका प्रणाली का यह न्यायिक नवाचार भारत के उच्चतम न्यायालय के लिए अद्वितीय है।

    कानूनी सहायता

    यदि कोई व्यक्ति समाज के गरीब वर्ग से है जिसकी वार्षिक आय रु.5,00,000/- से कम है या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है, प्राकृतिक आपदा का शिकार है, महिला या बच्चा है या मानसिक रूप से बीमार है या अन्यथा दिव्यांग व्यक्ति है या औद्योगिक कामगार है या अभिरक्षा सहित संरक्षण गृह अभिरक्षा में है, तो वह उच्चतम न्यायालय के कानूनी सहायता समिति से मुफ्त कानूनी सहायता पाने का हकदार है। समिति द्वारा दी गई सहायता में मामले की तैयारी और बहस के लिए एक अधिवक्ता उपलब्ध कराने के अलावा, मामले की तैयारी और उससे जुड़े सभी आवेदनों की लागत शामिल है। समिति के माध्यम से कानूनी सेवा प्राप्त करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को सचिव को एक आवेदन करना होगा और अपने मामले से संबंधित सभी आवश्यक दस्तावेज समिति को सौंपने होंगे। समिति व्यक्ति की पात्रता सुनिश्चित करने के बाद उसे आवश्यक कानूनी सहायता प्रदान करती है। मध्यम आय वर्ग से संबंधित व्यक्ति अर्थात जिनकी प्रति वर्ष आय रु.60,000/- से अधिक लेकिन रु.7,50,000/- से कम है, वे लोग भी नाममात्र भुगतान पर उच्चतम न्यायालय के मध्यम आय वर्ग समिति से कानूनी सहायता प्राप्त करने के पात्र हैं। उच्चतम न्यायालय का एक मध्यस्थता केंद्र भी है जो न्यायालय द्वारा उसके पास भेजे गए मामलों में मध्यस्थता करता है और उनका समाधान करता है।

    उच्च न्यायालय

    उच्च न्यायालय राज्य के न्यायिक प्रशासन के प्रमुख होते हैं। देश में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनमें से तीन का अधिकार क्षेत्र एक से अधिक राज्यों पर है। केंद्र शासित प्रदेशों में, दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का अपना उच्च न्यायालय है। अन्य पांच केंद्र शासित प्रदेश विभिन्न उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीश होते हैं जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करते हैं। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाती है। अवर न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया समान है, सिवाय इसके कि संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श की जाती है। उच्च न्यायालय में न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की तरह ही हटाए जा सकते हैं। न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के पात्र होने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और दस वर्षों तक भारत में न्यायिक पद पर होना चाहिए या समान अवधि के लिए लगातार उच्च न्यायालय या दो या अधिक ऐसे न्यायालयों में अधिवक्ता के रूप में कार्य करने का अनुभव होना चाहिए।

    प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन और किसी अन्य उद्देश्य के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण की प्रकृति वाले रिट सहित निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति है।

    इस शक्ति का प्रयोग उन क्षेत्रों के संबंध में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाले किसी भी उच्च न्यायालय द्वारा भी किया जा सकता है, जिसके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिए पूर्ण या आंशिक रूप से वाद हेतुक उत्पन्न होता है, भले ही ऐसी सरकार या प्राधिकारी का क्षेत्र नहीं है या ऐसे व्यक्ति का निवास उन क्षेत्रों के भीतर नहीं है।

    प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्तियाँ प्राप्त हैं। यह ऐसे न्यायालयों से विवरणी मांग सकता है, सामान्य नियम बना और जारी कर सकता है और उनके कार्यप्रणाली और कार्यवाही को विनियमित करने की विधि निर्धारित निर्धारित कर सकता है और उस तरीके और विधि को निर्धारित कर सकता है जिसमें पुस्तक प्रविष्टियां और खाते रखे जाएंगे। उपाबंध ए उच्च न्यायालयों की पीठ, स्थापना का वर्ष और क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार दर्शाता है।

    प्रत्येक राज्य में राज्यपाल द्वारा नियुक्त एक महाधिवक्ता भी होता है, जो राज्यपाल की सहमति तक पद पर बना रहता है। महाधिवक्ता को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए योग्य व्यक्ति होना चाहिए। उनका कर्तव्य ऐसे कानूनी मामलों पर राज्य सरकारों को सलाह देना और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करना है, जो राज्यपाल द्वारा उन्हें निर्देशित या सौंपे जा सकते हैं। महाधिवक्ता को वोट देने के अधिकार के बिना राज्य विधानमंडल की कार्यवाही में बोलने और भाग लेने का अधिकार है।

    लोक अदालतें

    लोक अदालतें अदालत के बाहर विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंचने के लिए एक वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र है। विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत, प्रत्येक राज्य प्राधिकरण या जिला प्राधिकरण या उच्चतम न्यायालय कानूनी सेवा समिति या प्रत्येक उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति या, जैसा भी मामला हो, तालुका विधि सेवा समिति लोक अदालतों का आयोजन कर सकती है। लोक अदालत का प्रत्येक पंचाट सिविल कोर्ट का डिक्री या अधिकरण का आदेश माना जाएगा और विवाद के पक्षकारों पर अंतिम और बाध्यकारी होगा। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि लोक अदालत में तय किए गए मामलों के संबंध में, पक्षकारों द्वारा भुगतान की गई न्यायालय फीस वापस कर दी जाएगी।

    अनुबंध ‘क’

    उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार और पीठ
    क्रम संख्या उच्च न्यायालय का नाम स्थापना वर्ष प्रादेशिक क्षेत्राधिकार मुख्य पीठ और पीठ
    1. बम्बई उच्च न्यायालय 1862 महाराष्ट्र,गोवा,
    दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव*
    मुख्य पीठ: मुंबई
    अन्य पीठें: पणजी, औरंगाबाद और नागपुर
    2. कलकत्ता उच्च न्यायालय 1862 पश्चिम बंगाल
    अंडमान और निकोबार द्वीप समूह*
    मुख्य पीठ: कोलकाता
    अन्य पीठ: पोर्ट ब्लेयर और जलपाईगुड़ी
    3. मद्रास उच्च न्यायालय 1862 तमिलनाडु

    पुडुचेरी*

    मुख्य पीठ: चेन्नई
    पीठ: मदुरै
    4. इलाहाबाद उच्च न्यायालय 1866 उत्तर प्रदेश मुख्य पीठ: प्रयागराज
    न्यायपीठ: लखनऊ
    5. कर्नाटक उच्च न्यायालय 1884 कर्नाटक मुख्य पीठ: बेंगलुरु
    अन्य पीठें: धारवाड़ और गुलबर्गा
    6. पटना उच्च न्यायालय 1916 बिहार पटना
    7. गुवाहाटी उच्च न्यायालय 1948 असम,
    नागालैंड,
    मिज़ोरम,
    अरुणाचल प्रदेश
    मुख्य पीठ: गुवाहाटी
    अन्य पीठें: कोहिमा, आइजोल और ईंटानगर
    8. ओडिशा उच्च न्यायालय

    1948

    ओडिशा कट्टक
    9. राजस्थान उच्च न्यायालय 1949 राजस्थान मुख्य पीठ: जोधपुर
    न्यायपीठ: जयपुर
    10. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय 1956 मध्य प्रदेश मुख्य पीठ: जबलपुर
    अन्य पीठें : ग्वालियर और इंदौर
    11 केरल उच्च न्यायालय 1956 केरल, लक्षद्वीप* कोच्चि
    12 गुजरात उच्च न्यायालय 1960 गुजरात सोला (अहमदाबाद)
    13 दिल्ली उच्च न्यायालय 1966 दिल्ली* नई दिल्ली
    14 हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 1971 हिमाचल प्रदेश शिमला
    15 पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय 1966 पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़* चंडीगढ़
    16 सिक्किम उच्च न्यायालय 1975 सिक्किम गंगटोक
    17 छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 2000 छत्तीसगढ़ बिलासपुर
    18 उत्तराखंड उच्च न्यायालय 2000 उत्तराखंड नैनीताल
    19 झारखण्ड उच्च न्यायालय 2000 झारखण्ड राँची
    20 त्रिपुरा उच्च न्यायालय 2013 त्रिपुरा अगरतला
    21 मणिपुर उच्च न्यायालय 2013 मणिपुर इम्फाल
    22 मेघालय उच्च न्यायालय 2013 मेघालय शिलांग
    23 तेलंगाना उच्च न्यायालय 2019 तेलंगाना हैदराबाद
    24 आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय 2019 आंध्र प्रदेश अमरावती
    25. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख
    (नोट: 1928 में, जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी। जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद; वहाँ अब एक सामान्य उच्च न्यायालय है।)
    2019 जम्मू और कश्मीर*, लद्दाख* जम्मू और श्रीनगर

    *भारत के केंद्र शासित प्रदेश.