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    संविधान

    विधि, न्यायालय और संविधान

    कानून के शासन के प्रति भारत की प्रतिबद्धता संविधान पर आधारित है, जो भारत सरकार के संसदीय स्वरूप होने के साथ-साथ भारत को एक ‘प्रभुतासंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ के रूप में स्थापित करता है। भारत का संविधान एक सर्वोच्च विधिक प्राधिकरण है जो सरकार के विधायी, कार्यकारी और न्यायिक अंगों को एक साथ जोड़ता है। संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है और स्वतंत्र न्यायपालिका को संविधान का उल्लंघन करने वाले कानूनों या सरकारी कार्यों को अमान्य करने का अधिकार देता है। संविधान की कुछ अन्य प्रमुख विशेषताएँ- केंद्र और राज्यों के बीच शासन की एक संघीय प्रणाली, सरकार के तीन अंगों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, विधि के समक्ष समानता और विवेक और धर्म की स्वतंत्रता को मान्यता देने वाला एक पंथनिरपेक्ष राज्य है।

    विधि के स्त्रोत

    भारत का संविधान विधिक अधिकार का स्रोत है और संसद एवं राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार देता है। केंद्र और राज्य सरकारों और नगर निगमों, नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों और अन्य स्थानीय निकायों जैसे स्थानीय प्राधिकरणों द्वारा बनाए गए नियमों, विनियमों और उप-विधियों के रूप में अधीनस्थ विधान के रूप में जाना जाने वाला विधियों का एक विशाल निकाय भी है। यह अधीनस्थ विधान संसद अथवा राज्य अथवा संघ राज्य क्षेत्र के संबंधित विधानमंडल द्वारा प्रदत्त अथवा प्रत्यायोजित प्राधिकार के अधीन बनाया जाता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय भारत के क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। चूँकि भारत विविधताओं का देश है, स्थानीय रीति-रिवाज और परंपराएँ जो किसी कानून या संविधान का खंडन नहीं करती हैं, उन्हें कुछ क्षेत्रों में न्याय प्रदान करते समय न्यायालयों द्वारा मान्यता दी जाती है और ध्यान में रखा जाता है।

    विधि का अधिनियमन

    संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ हैं: एक संघ सूची, एक राज्य सूची और एक समवर्ती सूची। ये सूचियाँ उन विभिन्न विषयों को निर्धारित करती हैं जिन पर संसद और राज्य विधानसभाओं को विधि बनाने का अधिकार है। भारतीय संसद संघ सूची में वर्णित मामलों पर विधि बनाने में सक्षम है। राज्य विधायिका राज्य सूची में प्रगणित मामलों पर विधि बनाने के लिए सक्षम हैं। जबकि संघ और राज्यों दोनों के पास समवर्ती सूची में प्रगणित मामलों पर विधि बनाने की शक्ति है, केवल संसद के पास राज्य सूची या समवर्ती सूची में शामिल नहीं किए गए मामलों पर विधि बनाने की शक्ति है। प्रतिकूलता की स्थिति में, संसद द्वारा बनाई गई विधियाँ प्रतिकूलता की सीमा तक राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाई गई विधियों पर अभिभावी होंगी। राज्य की विधि तब तक शून्य रहेगी जब तक उसे राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो और ऐसी स्थिति में वह उस राज्य में अभिभावी होगी।

    विधि की प्रयोज्यता

    संसद द्वारा बनाई गई विधियाँ भारत के पूरे क्षेत्र में या उसके किसी भाग में विस्तारित हो सकती हैं और राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाई गई विधियाँ सामान्यतः केवल संबंधित राज्य के क्षेत्र के भीतर ही लागू होती हैं। अतः राज्य और समवर्ती सूचियों में आने वाले मामलों से संबंधित विधि के उपबंधों में एक राज्य से दूसरे राज्य में भिन्नताएँ मौजूद होने की संभावना है।

    न्यायपालिका

    भारतीय संविधान की अनूठी विशेषताओं में से एक यह है कि संघीय प्रणाली को अपनाने और उनके संबंधित क्षेत्रों में संघ और राज्य अधिनियमों के अस्तित्व के बावजूद, यह संघ और राज्य दोनों कानूनों को संचालित करने के लिए न्यायालयों की एक एकीकृत प्रणाली प्रदान करता है। संपूर्ण न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर भारत का उच्चतम न्यायालय है जिसके बाद प्रत्येक राज्य या राज्यों के समूह में उच्च न्यायालय आते हैं। प्रत्येक उच्च न्यायालय के प्रशासन के तहत ज़िला न्यायालय हैं। कुछ राज्यों में छोटे-मोटे और स्थानीय प्रकृति के सिविल और आपराधिक विवादों का निर्णय करने के लिए न्याय पंचायत, ग्राम न्यायालय, ग्राम कचहरी जैसे विभिन्न नामों के अधीन ग्राम/पंचायत न्यायालय भी कार्य करते हैं। प्रत्येक राज्य को एक ज़िला और सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में न्यायिक ज़िलों में विभाजित किया गया है, जो मूल क्षेत्राधिकार का प्रमुख सिविल न्यायालय है और मौत की सज़ा सहित सभी अपराधों की सुनवाई कर सकता है। ज़िला और सत्र न्यायाधीश एक ज़िले के सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकारी होते हैं। ज़िला न्यायालयों में सिविल क्षेत्राधिकार के न्यायालय होते हैं, जिनकी अध्यक्षता विभिन्न राज्यों में मुंसिफ़, उप-न्यायाधीश, सिविल न्यायाधीश के रूप में जाने जाने वाले न्यायाधीशों द्वारा की जाती है। इसी तरह, आपराधिक न्यायालयों के वर्गों में प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और न्यायिक मजिस्ट्रेट शामिल हैं।

    उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था

    भारत के उच्चतम न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति शामिल होते हैं और भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त 33 से अधिक अन्य न्यायाधीश नहीं होते हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए, एक व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और कम से कम पाँच साल के लिए उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या कम से कम 10 साल के लिए उच्च न्यायालय का अधिवक्ता होना चाहिए या वह राष्ट्रपति की राय में एक पारंगत विधिवेत्ता होना चाहिए। संविधान में उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश, जिसे उच्चतम न्यायालय के तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है और उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों हेतु उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने के लिए भी प्रावधान हैं।

    न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को केवल तब ही पद से हटाया जा सकता जब इसका आदेश संसद के प्रत्येक सदन में एक अभिभाषण के बाद राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया हो, जो उस सदन की कुल सदस्यता के बहुमत और उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा समर्थित हो, और सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर हटाने के लिए उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया गया हो। एक व्यक्ति जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहा है, उसे विधि के किसी भी न्यायालय में या भारत में किसी अन्य प्राधिकरण के समक्ष वकालत करने से विवर्जित किया गया है।

    उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री

    उच्चतम न्यायालय की प्रशासनिक शाखा को रजिस्ट्री के रूप में जाना जाता है। व्यवस्थित कामकाज और कार्य के कुशल निपटान के लिए रजिस्ट्री को दो मुख्य खंडों में बांटा गया है, अर्थात् प्रशासन और न्यायिक, जिन्हें आगे विभिन्न प्रभागों, शाखाओं, अनुभागों और प्रकोष्ठों में विभाजित किया गया है। न्यायालय और रजिस्ट्री की कार्य संरचना का निर्धारण करने की प्रशासनिक शक्ति विशेष रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश में निहित है। महासचिव जो भारत सरकार के सचिव रैंक का होता है, उच्चतम न्यायालय का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है। निबंधकगण/विशेष कार्य अधिकारीगण तथा अतिरिक्त निबंधकगण उनकी सहायता करते हैं, जिन्हें विशिष्ट शाखाओं का कार्य सौंपा जाता है और बदले में, उप निबंधकगण, सहायक निबंधकगण और अन्य अधिकारीगण / कर्मचारीगण उन्हें सहायता प्रदान करते हैं।

    महान्यायवादी

    भारत के महान्यायवादी राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त देश के सर्वोच्च विधि अधिकारी होते हैं। वे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने योग्य एक व्यक्ति होते हैं। भारत के महान्यायवादी का यह कर्तव्य है कि वे भारत सरकार को ऐसे विधिक विषयों पर सलाह दें और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करें जो राष्ट्रपति द्वारा उन्हें भेजें या सौंपे जाएं। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में, उन्हें भारत के सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार है और साथ ही मतदान के अधिकार के बिना संसद की कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है। अपने कार्यों के निर्वहन में, महान्यायवादी को एक सॉलिसिटर जनरल और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरलों द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।

    सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्तागण

    अधिवक्तागण की तीन श्रेणियां हैं जो भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष वकालत करने के हकदार हैं।

    1. वरिष्ठ अधिवक्तागण
      वरिष्ठ अधिवक्तासे अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 16 की उपधारा (2) के अधीन इस प्रकार पदनामित कोई अधिवक्ता और ऐसे सभी अधिवक्ता अभिप्रेत हैं जिनके नाम अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अध्याय III के प्रारंभ होने से ठीक पहले न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्तागण की नामावली में अंकित थे। भारत के उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्तागण को पदनामित करने से संबंधित सभी मामलों को भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ताओं को पदनामित करने हेतु दिशानिर्देश, 2023 के तहत एक स्थायी समिति, जिसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं को पदनामित करने हेतु समितिके रूप में जाना जाता है, द्वारा निपटाया जाता है। भारत के मुख्य न्यायमूर्ति या उच्चतम न्यायालय के कोई न्यायाधीश किसी अधिवक्ता के नाम की वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में पदनामित किए जाने की सिफारिश इस मत के आधार पर कर सकते हैं कि ऐसा अधिवक्ता जो मुख्यत: उच्चतम न्यायालय में वकालत करता है, अपनी योग्यता, बार में अपनी स्थिति या विधि में विशेष ज्ञान या अनुभव के आधार पर इस प्रकार पदनामित किया जाना चाहिए। एक वरिष्ठ अधिवक्ता को अभिलेखअधिवक्ता के बिना उच्चतम न्यायालय में उपस्थित होने का अधिकार नहीं है। वह भारत में किसी भी न्यायालय या अधिकरण में अभिवाक् या शपथपत्र, साक्ष्य पर सलाह प्रस्तुत करने या एक सदृश मसौदा तैयार करने हेतु निर्देश स्वीकार करने या किसी भी प्रकार के हस्तांतरण कार्य को करने का हकदार नहीं है, लेकिन यह निषेध एक कनिष्ठ के परामर्श से उपरोक्त ऐसे किसी भी मामले को निपटाने पर लागू नहीं होगा।
    2. अभिलेख-अधिवक्ताकेवल ये अधिवक्तागण ही उच्चतम न्यायालय के समक्ष कोई मामला या दस्तावेज दायर करने के हकदार हैं। वे उच्चतम न्यायालय में किसी पक्ष के लिए उपस्थिति दर्ज कर सकते हैं या कार्य कर सकते हैं।
    3. अन्य अधिवक्तागणये वे अधिवक्ता हैं जिनके नाम अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत बनाए गए किसी भी राज्य बार काउंसिल की नामावली पर दर्ज किए गए हैं। वे उच्चतम न्यायालय में किसी पक्षकार की ओर से किसी भी मामले में उपस्थित हो सकते हैं और बहस कर सकते हैं लेकिन वे न्यायालय के समक्ष कोई दस्तावेज या मामला दायर करने के हकदार नहीं हैं।न्याय-मित्रयदि कारागार से या किसी अन्य आपराधिक मामले में कोई याचिका प्राप्त होती है, जहाँ अभियुक्त का प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता है, तो अभियुक्त के मामले का बचाव और बहस करने के लिए न्यायालय द्वारा एक अधिवक्ता को न्याय-मित्र के रूप में नियुक्त किया जाता है। सिविल मामलों में, न्यायालय एक अधिवक्ता को न्याय-मित्र के रूप में नियुक्त कर सकता है यदि वह एक गैर-प्रतिनिधित्व वाले पक्ष के मामले में ऐसा आवश्यक समझता है। न्यायालय सामान्य सार्वजनिक महत्व के किसी भी मामले या जिसमें बड़े पैमाने पर जनता का हित शामिल है, में भी न्याय-मित्र नियुक्त कर सकते हैं।

    न्याय-मित्र

    यदि कारागार से या किसी अन्य आपराधिक मामले में कोई याचिका प्राप्त होती है, जहाँ अभियुक्त का प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता है, तो अभियुक्त के मामले का बचाव और बहस करने के लिए न्यायालय द्वारा एक अधिवक्ता को न्याय-मित्र के रूप में नियुक्त किया जाता है। सिविल मामलों में, न्यायालय एक अधिवक्ता को न्याय-मित्र के रूप में नियुक्त कर सकता है यदि वह एक गैर-प्रतिनिधित्व वाले पक्ष के मामले में ऐसा आवश्यक समझता है। न्यायालय सामान्य सार्वजनिक महत्व के किसी भी मामले या जिसमें बड़े पैमाने पर जनता का हित शामिल है, में भी न्याय-मित्र नियुक्त कर सकते हैं।